जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम...

लॉकडाउन के समय मेें वंचित और हाशिए पर जीवन यापन कर रहे समुदाय की पीड़ा पर काव्‍यात्‍मक अभिव्‍यक्ति

Publish: Mar 31, 2020, 01:10 AM IST

कोरोना महामारी को फैलने से रोकने के लिए देश में लॉकडाउन लागू है। ऐसे में अपने घरों की ओर पैदल लौट रहे श्रमिकों और उनके परिवारों की खबरें और तस्वीरें वायरल हो रही हैं। हमें शर्मसार करती व्यवस्था के इस रूप पर संजय कुंदन की कविता। कविता को स्वर दिया है रंगकर्मी दिनेश गुप्ता ने। कविता कुछ यूं है -

जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम
यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी
आज भी हैं 

और यह देह

लेकिन अब आत्मा पर खरोंचें कितनी बढ़ गई हैं

कौन देखता है

कोई रोकता तो रुक भी जाते

बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी

इतना ही कहता

- यह शहर तुम्हारा भी तो है

उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर

जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं

उन्होंने भी कुछ नहीं कहा

जिनकी चूड़ियां हमने 1300 डिग्री तापमान में

कांच पिघलाकर बनाईं

किसी ने नहीं देखा कि एक ब्रश, एक पेचकस,

एक रिंच और हथौड़े के पीछे एक हाथ भी है

जिसमें खून दौड़ता है

जिसे किसी और हाथ की ऊष्मा चाहिए

हम जा रहे हैं

हो सकता है

कुछ देर बाद

हमारे पैर लड़खड़ा जाएं

हम गिर जाएं

खून की उल्टियां करते हुए

हो सकता है हम न पहुंच पाएं

वैसे भी आज तक हम पहुंचे कहां हैं

हमें कहीं पहुंचने भी कहां दिया जाता है

हम किताबों तक पहुंचते-पहुंचते रह गए

न्याय की सीढ़ियों से पहले ही रोक दिए गए

नहीं पहुंच पाईं हमारी अर्जियां कहीं भी

हम अन्याय का घूंट पीते रह गए

जा रहे हम

यह सोचकर कि हमारा एक घर था कभी

अब वह न भी हो

तब भी उसी दिशा में जा रहे हम

कुछ तो कहीं बचा होगा उस ओर

जो अपना जैसा लगेगा।

-संजय कुंदन